Wednesday, 1 April 2020

ई-पुस्तक

 

आप सभी पाठकों का स्वागत है । यहाँ हम आपको उन कृतियाँ से अवगत कराना चाहते हैंजिसे पढकर आनंद महसूस करेंगे। हिंदी साहित्य में शुरुआत से लेकर वर्तमान समय तक बहुत सारी ऐसी पुस्तकें लिखी गयी जो अत्यंत ही पठनीय एवं रोचक है। यहाँ पर कुछ पुस्तकों को उसके परिचय के साथ प्रस्तुत किया गया हैजिससे आप सभी को अपने रुचि अनुसार पुस्तक चयन में आशानी होगी ।

इस भाग में हमने अतयंत पठनीयमजेदार 10 पुस्तकों को संग्रहित किया हैजिसे यदि आपने  पढना प्रारम्भ कर दिया तो बिना समाप्त किए नहीं रुकेंगे।  


1.निरुपमा (Nirupama)


लेखक : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
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क्यों पढें ?

सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का जन्म वसन्त पंचमी, 1896 को बंगाल के मेदिनीपुर जिले के महिषादल नामक देशी राज्य में हुआ। निवास उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के गढ़ा कोला गाँव में। शिक्षा हाईस्कूल तक ही हो पाई। हिन्दी, बांग्ला, अंग्रेजी और संस्कृत का ज्ञान आपने अपने अध्यवसाय से स्वतन्त्र रूप में अर्जित किया। प्राय: 1918 से 1922 ई. तक निराला महिषादल राज्य की सेवा में रहे, उसके बाद से सम्पादन, स्वतन्त्र लेखन और अनुवाद-कार्य।








2.मैला आँचल (Maila Anchal)
लेखक : फणीश्वरनाथ रेणु
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क्यों पढें ?

मैला आँचल हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तर-पूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं भी घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है। मैला आँचल का कथानायक एक युवा डॉक्टर है जो अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद एक पिछड़े गाँव को अपने कार्य-क्षेत्र के रूप में चुनता है, तथा इसी क्र म में ग्रामीण जीवन के पिछड़ेपन, दु:ख-दैन्य, अभाव, अज्ञान, अन्धविश्वास के साथ-साथ तरह-तरह के सामाजिक शोषण-चक्र में फँसी हुई जनता की पीड़ाओं और संघर्षों से भी उसका साक्षात्कार होता है। कथा का अन्त इस आशामय संकेत के साथ होता है कि युगों से सोई हुई ग्राम-चेतना तेजी से जाग रही है। कथाशिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु की इस युगान्तरकारी औपन्यासिक कृति में कथाशिल्प के साथ-साथ भाषा और शैली का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहज-स्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी। ग्रामीण अंचल की ध्वनियों और धूसर लैंडस्केप्स से सम्पन्न यह उपन्यास हिन्दी कथा-जगत में पिछले कई दशकों से एक क्लासिक रचना के रूप में स्थापित है।


3.एक सड़क सत्तावन गलियां (Ek Sarak Sattavan Galiyan)

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लेखक : कमलेश्वर  


क्यों पढें ?


कमलेश्वर का यह उपन्यास मानवता के दरवाजे पर इतिहास और समय की एक दस्तक है... इस उम्मीद के साथ कि भारत ही नहीं, दुनिया भर में एक के बाद एक दूसरे पाकिस्तान बनाने की लहू से लथपथ यह परम्परा अब खत्म हो...







4.आपका बंटी (Apaka Banti)
लेखिका : मन्नू भंडारी
क्यों पढें ?
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आपका बंटी मन्नू भंडारी के उन बेजोड़ उपन्यासों में है जिनके बिना न बीसवीं शताब्दी के हिन्दी उपन्यास की बात की जा सकती है न स्त्री-विमर्श को सही धरातल पर समझा जा सकता है। तीस वर्ष पहले (1970 में) लिखा गया यह उपन्यास हिन्दी की लोकप्रिय पुस्तकों की पहली पंक्ति में है। दर्जनों संस्करण और अनुवादों का यह सिलसिला आज भी वैसा ही है जैसा धर्मयुग में पहली बार धारावाहिक के रूप से प्रकाशन के दौरान था। बच्चे की निगाहों और घायल होती संवेदना की निगाहों से देखी गई परिवार की यह दुनिया एक भयावह दुस्वप्न बन जाती है। कहना मुश्किल है कि यह कहानी बालक बंटी की है या माँ शकुन की। सभी तो एक-दूसरे में ऐसे उलझे हैं कि एक की त्रासदी सभी की यातना बन जाती है। शकुन के जीवन का सत्य है कि स्त्री की जायजश् महत्त्वाकांक्षा और आत्मनिर्भरता पुरुष के लिए चुनौती है - नतीजे में दाम्पत्य तनाव उसे अलगाव तक ला छोड़ता है। यह शकुन का नहीं, समाज में निरन्तर अपनी जगह बनाती, फैलाती और अपना क़द बढ़ाती ‘नई स्त्री’ का सत्य है। पति-पत्नी के इस द्वन्द्व में यहाँ भी वही सबसे अधिक पीसा जाता है बंटी, जो नितान्त निर्दोष, निरीह और असुरक्षित है। बच्चे की चेतना में बड़ों के इस संसार को कथाकार मन्नू भंडारी ने पहली बार पहचाना था। बाल मनोविज्ञान की गहरी समझ-बूझ के लिए चर्चित, प्रशंसित इस उपन्यास का हर पृष्ठ ही मर्मस्पर्शी और विचारोत्तेजक है। हिन्दी उपन्यास की एक मूल्यवान उपलब्धि के रूप में आपका बंटी एक कालजयी उपन्यास है।

5.महाभोज (Mahabhoj)

लेखिका : मन्नू भंडारी

क्यों पढें ?
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मन्नू भंडारी का महाभोज उपन्यास इस धारणा को तोड़ता है कि महिलाएं या तो घर-परिवार के बारे में लिखती हैं, या अपनी भावनाओं की दुनिया में ही जीती-मरती हैं!महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है! जनतंत्र में साधारण जन की जगह कहाँ है? राजनीति और नौकरशाही के सूत्रधारों ने सारे ताने-बाने को इस तरह उलझा दिया है कि वह जनता को फांसने और घोटने का जाल बनकर रह गया है! इस जाल की हर कड़ी महाभोज के दा साहब की उँगलियों के इशारों पर सिमटती और कहती है! हर सूत्र के वे कुशल संचालक हैं! उनकी सरपरस्ती में राजनीति के खोटे सिक्के समाज चला रहे हैं!-खरे सिक्के एक तरफ फेंक दिए गए हैं! महाभोज एक ओर तंत्र के शिकंजे की तो दूसरी ओर जन की नियति के द्वन्द की दारुण कथा है! अनेक देशी-विदेशी भाषाओँ में इस महत्त्पूर्ण उपन्यास के अनुवाद हुए हैं और महाभोज नाटक तो दर्जनों भाषाओँ में सैकड़ों बार मानचित होता रहा है! ‘नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा (दिल्ली), द्वारा मानचित महाभोज नाटक राष्ट्रीय नाट्य-मंडल की गौरवशाली प्रस्तुतियों में अविस्मर्णीय है। 



6.राग दरबारी (Rag Darabari)

लेखक  : श्रीलाल शुक्ल  
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क्यों पढें ?

रागदरबारी जैसे कालजयी उपन्यास के रचयिता श्रीलाल शुक्ल हिंदी के वरिष्ठ और विशिष्ट कथाकार हैं। उनकी कलम जिस निस्संग व्यंग्यात्मकता से समकालीन सामाजिक यथार्थ को परत-दर-परत उघाड़ती रही है, पहला पड़ाव उसे और अधिक ऊँचाई सौंपता है। श्रीलाल शुक्ल ने अपने इस नए उपन्यास को राज-मजदूरों, मिस्त्रियों, ठेकेदारों, इंजीनियरों और शिक्षित बेरोजगारों के जीवन पर केेंद्रित किया है और उन्हें एक सूत्र में पिरोए रखने के लिए एक दिलचस्प कथाफलक की रचना की है। संतोषकुमार उर्फ सत्ते परमात्मा जी की बनती हुई चौथी बिल्ंिडग की मुंशीगीरी करते हुए न सिर्फ अपनी डेली-पैसिंजरी, एक औसत गाँव-देहात और ‘चल-चल रे नौजवान’ टाइप ऊँचे संबोधनों की शिकार बेरोजगार जिंदगी की बखिया उधेड़ता है, बल्कि वही हमें जसोदा उर्फ ‘मेमसाहब’ जैसे जीवंत नारी चरित्र से भी परिचित कराता है। इसके अलावा उपन्यास के प्रायः सभी प्रमुख पात्रों को लेखक ने अपनी गहरी सहानुभूति और मनोवैज्ञानिक सहजता प्रदान की है और उनके माध्यम से विभिन्न सामाजिक-आर्थिक अंतर्विरोधों, उन्हें प्रभावित - परिचालित करती हुई शक्तियों और मनुष्य स्वभाव की दुर्बलताओं को अत्यंत कलात्मकता से उजागर किया है। वस्तुतः श्रीलाल शुक्ल की यह कथाकृति बीसवीं शताब्दी के इन अंतिम दशकों र्में ईंट-पत्थर होते जा रहे आदमी की त्रासदी को अत्यंत मानवीय और यथार्थवादी फलक पर उकेरती है।


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7जंजीरें और दीवारें (janjiren aur divaren)

लेखक  : रामवृक्ष बेनीपुरी  
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क्यों पढें ?
जंजीरें फौलाद की होती हैं, दीवारें प्तत्थर की । किंतु पटना जेल में जो दीवारें देखी थीं, उनकी दीवारें भले ही पत्थर- सी लगी हों, थीं ईंट की ही । पत्थर की दीवारें तो सामने हैं - चट्टानों के ढोंकों से बनी ये दीवारें । ऊपर- नीचे, अगल-बगल, जहाँ देखिए पत्थर- ही-पत्थर । पत्थर-काले पत्थर, कठोर पत्थर, भयानक पत्थर, बदसूरत पत्थर । किंतु अच्छा हुआ कि भोर की सुनहली धूप में हजारीबाग सेंट्रल जेल की इन दीवारों का दर्शन किया । इन काली, कठोर, अलंघ्य, गुमसुम दीवारों की विभीषिका को सूर्य की रंगीन किरणों ने कुछ कम कर दिया था । संतरियों की किरचें भी सुनहली हो रही थीं । हाँ अच्छा हुआ, क्योंकि बाद के पंद्रह वर्षों में न जाने कितनी बार इन दीवारों के नीचे खड़ा होना पड़ेगा । किसीने कहा है, सब औरतें एक- सी । यह सच हो या झूठ, किंतु मैं कह चुका हूँ सब जेल एक-से होते हैं । सबकी दीवारें एक-सी होती हैं, सबके फाटक एक-से दुहरे होते हैं, सबमें एक ही ढंग के बड़े-चौड़े ताले लटकते होते हैं, सबको चाबियों के गुच्छे भी एक-से झनझनाते हैं और सबके वार्डर, जमादार, जेलर, सुपरिंटेंडेंट जैसे एक ही साँचे के ढले होते हैं-मनहूस, मुहर्रमी; जैसे सबने हँसने से कसम खा ली हो । किंतु हजारीबाग का जेल अपनी कुछ विशेषता भी रखता है । सब जेल बनाए जाते हैं अपराधियों को ध्यान में रखकर, हजारीबाग सेंट्रल जेल की रचना ही हुई थी देशभक्‍तों पर नजर रखकर । -इसी पुस्तक से



8.दिल्ली मेरा परदेस  (Dilli mera pradesh)

लेखक  : रघुवीर सहाय

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क्यों पढें ?

दिल्ली मेरा परदेस’ रघुवीर सहाय की डायरी पुस्तक है जो ‘धर्मयुग’ में 1960 से 63 तक ‘दिल्ली की डायरी’ नामक स्तम्भ के रूप में प्रकाशित हुई थी। तब रघुवीर सहाय ‘सुन्दरलाल’ के नाम से यह स्तम्भ लिखा करते थे जो काफी चर्चित रहा। इसके जरिए रघुवीर सहाय की कोशिश यह थी कि इसमें दिल्ली के जीवन पर टिप्पणियाँ हों और ऐसी हों कि उनका दिल्ली के बाहर भी कोई अर्थ हो सके। ये तीन वर्ष बहुत महत्त्वपूर्ण थे, क्योंकि नेहरू के राजनीतिक जीवन के वे अन्तिम वर्ष थे। 1964 में उनके देहान्त के पहले राष्ट्रीय जीवन का चरित्र एक संकट से गुजर रहा था। जिन मान्यताओं के लिए नेहरू कहते और करते थे, वे उनके बाद भी बची रहेंगी या नहीं, यह प्रश्न एक सांस्कृतिक प्रश्न बन गया था। ‘दिल्ली की डायरी’ में नेहरू के जीवन के अन्तिम चार वर्षों में से तीन की स्पष्ट झलक मिलती है। इस पुस्तक का नाम ‘दिल्ली मेरा परदेस’ क्यों है, इसके बारे में खुद रघुवीर सहाय लिखते हैं कि, ‘दिल्ली मेरा देस नहीं है और दिल्ली किसी का देस नहीं हो सकती। उसकी अपनी संस्कृति नहीं है। यहाँ के निवासियों के सामाजिक आचरण को कभी इतना स्थिर होने का अवसर मिल भी नहीं सकता कि वह एक संस्कृति का रूप ग्रहण करे। अधिक से अधिक वह सभ्यता का, बल्कि उसके अनुकरणों का एक केन्द्र हो सकती है। 


9.निठल्ले की डायरी (Nithalle ki Dayari)

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लेखक  :  हरिशंकर परसाई 



क्यों पढे ?


निठल्ला भी कंही डायरी लिखने का काम करेगा ! असम्भव । उसी तरह अविश्वनीय जैसे यह कि तुलसीदास रामचरित मानसकी पांडुलिपि टाइप करते पाये गये । या यह कि तुकाराम पियानो पर अभंग गाते थे । मगर निठल्ले –निठल्ले में फर्क होता है । जैसे इनकमटैक्स-विभाग के ईमानदार और शिक्षा विभाग के ईमानदार में फर्क होता है । ईमानदार दोनों हैं ।  




10.कंकाल (Kankal)


लेखक  : जयशंकर प्रसाद 


क्यों पढे ?

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जयशंकर प्रसाद बहुआयामी रचनाकार थे। कवि, नाटककार, कहानीकार होने के साथ-साथ वह उच्चकोटि के उपन्यासकार भी थे। जयशंकर प्रसाद और मुंशी प्रेमचंद समकालीन लेखक थे लेकिन दोनों के लेखन की अलग-अलग धाराएँ थीं। जहाँ प्रेमचंद की अधिकांश रचनाएँ उस समय के यथार्थवाद को उजागर करती हैं वहीं जयशंकर प्रसाद का लेखन आदर्शवादी है जिसमें भारतीय संस्कृति, इतिहास और प्राचीन गौरव-गाथाओं की झलक मिलती है। जयशंकर प्रसाद ने मात्र दो उपन्यास लिखे-कंकाल और तितली। तीसरा उपन्यास इरावती उनके निधन के कारण अधूरा रह गया।

 




 
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