Monday, 11 May 2020

चंद्रकांता-तिलिस्म और ऐयारी की कथा



          चंद्रकांता बाबू देवकीनंन्दन खत्री की एक लोकप्रिय औपन्यासिक रचना है । यह एक जासूसी रचना है जिसमें तिलिस्मी और ऐयारी की जादूई कारनामे का वर्णन है । ऐयारी करने वाले ऐयार धूर्त व वेश बदलने में कुशल होते थे, साथ ही नृत्य, दौड़ या अन्य करतब करने में भी उनकी कोई सानी नहीं थी । वे तरह-तरह  की दवाऐं व रसायन का प्रयोग भी जानते थे । वे छल पूर्वक दुश्मनों की हत्या करने में भी चूकते नहीं थे । राजाओं के दरबार में ऐसे कुशल ऐयारों के लिए स्थायी जगह होती थी । ऐयार महिला या पुरुष भी हो सकते थे ।  तिलिस्मी एक जादुई प्रक्रिया थी जिसमें मनुष्यों को भी गायब किया जा सकता था । एक पत्थर पर लिखा था-यह तिलिस्म है, इसमें फंसने वाला कभी निकल नहीं सकता, हां, यदि कोई इसे तोड़े तो सभी कैदियों को भी छुड़ा ले और दौलत भी पा ले ।

            चंद्रकांता एक अति रोचक कथा है । इसके कथारस का पान करने के लिए जो व्यक्ति हिंदी नहीं जानते थे, वह भी हिंदी सीखी और इसका आनंद लिया । अर्थात बाबू देवकीनंदन खत्री ने ऐसी रचना लिखी, जिसने हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार किया ।


           आइए, यहाँ चंद्रकांता संतति की प्रति प्रस्तुत है इसे पढकर कथारस का आनंद प्राप्त करें ।    


चंद्रकांता संतति : खण्ड-1

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कहानी दो प्रेमियों के बारे में एक रोमांटिक कल्पना है जो प्रतिद्वंद्वी राज्यों से संबंधित हैं, विजयगढ़ की राजकुमारी चंद्रकांता और नौगढ़ के राजकुमार वीरेंद्र सिंह। विजयगढ़ राजा के दरबार के सदस्य क्रूर सिंह चंद्रकांता से शादी करने और सिंहासन संभालने के सपने देखता  हैं। जब क्रूर सिंह अपने प्रयास में असफल हो जाता है, तो वह राज्य से भाग जाता है और चुनारगढ़ के शक्तिशाली पड़ोसी राजा शिवदत्त से मित्रता कर लेता है। क्रूर सिंह किसी भी कीमत पर चंद्रकांता को वश में करने के लिए शिवदत्त का साथ देता है। शिवदत्त चंद्रकांता को पकड़ लेता है और शिवदत्त से दूर भागते समय चंद्रकांता खुद को एक तिलिस्म में कैद पाता है। उसके बाद कुंवर वीरेंद्र सिंह ने तिलिस्म को तोड़ा और अय्यार की मदद से शिवदत्त से लड़ाई की।  





चंद्रकांता संतति : खण्ड-2

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घंटा भर दिन बाकी है। किशोरी अपने उसी बाग में जिसका कुछ हाल पीछे लिख चुके हैं कमरे की छत पर सात-आठ सखियों के बीच में उदास तकिए के सहारे बैठी आसमान की तरफ देख रही है। सुगंधित हवा के झोंके उसे खुश किया चाहते हैं मगर वह अपनी धुन में ऐसी उलझी हुई है कि दीन-दुनिया की खबर नहीं है। आसमान पर पश्चिम की तरफ लालिमा छाई है। श्याम रंग के बादल ऊपर की तरफ उठ रहे हैंजिनमें तरह-तरह की सूरतें बात की बात में पैदा होती और देखते-देखते बदलकर मिट जाती हैं। अभी यह बादल का टुकड़ा खंड पर्वत की तरह दिखाई देता था, अभी उसके ऊपर शेर की मूरत नजर आने लगी, लीजिए, शेर की गर्दन इतनी बढ़ी की साफ ऊंट की शक्ल बन गई और लमहे-भर में हाथी का रूप धर सूंड दिखाने लगी, उसी के पीछे हाथ में बंदूक लिए एक सिपाही की शक्ल नजर आई लेकिन वह बंदूक छोड़ने के पहले खुद ही धुआं होकर फैल गया। बादलों की यह ऐयारी इस समय न मालूम कितने आदमी देख-देखकर खुश होते होंगे। मगर किशोरी के दिल की धड़कन इसे देख-देखकर बढ़ती ही जाती है। कभी तो उसका सिर पहाड़-सा भारी हो जाता है, कभी माधवी बाघिन की सूरत ध्यान में आती है, कभी बाकरअली शुतुरमुहार की बदमाशी याद आती है, कभी हाथ में बंदूक लिए हरदम जान लेने को तैयार बाप की याद तड़पा देती है।



चंद्रकांता संतति : खण्ड-3


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पाठक समझ ही गये होंगे कि रामशिला के सामने फलगू नदी के बीच में भयानक टीले के ऊपर रहने वाले बाबाजी के सामने जो दो औरतें गई थीं वे माधवी और उसकी सखी तिलोत्तमा थीं। बाबाजी ने उन दोनों से वादा किया था कि तुम्हारी बात का जवाब कल देंगे इसलिए दूसरे दिन वे दोनों आधी रात के समय फिर बाबाजी के पास गईं। किवाड़ खटखटाते ही अंदर से बाबाजी ने दरवाजा खोल दिया और उन दोनों को बुलाकर अपने पास बैठाया।






चंद्रकांता संतति : खण्ड-4
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जब कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह मन्दिर के पीछे की तरफ पहुंचे तो एक विचित्र वेशधारी मनुष्य पर उनकी निगाह पड़ी। उस आदमी की उम्र अस्सी वर्ष से कम न होगी। उसके सिर, मूंछ, दाढ़ी और भौं इत्यादि के तमाम बाल बर्फ की तरह सफेद हो रहे थे मगर गरदन और कमर पर बुढ़ापे ने अपना दखल जमाने से परहेज कर रक्खा था, अर्थात् न तो उसकी गर्दन हिलती थी और न कमर झुकी हुई थी, उसके चेहरे पर झुर्रियां (बहुत कम) पड़ी हुई थीं मगर फिर भी उसका गोरा चेहरा रौनकदार और रोबीला दिखाई पड़ता था और दोनों तरफ के गालों पर अब भी सुर्खी मौजूद थी। एक नहीं बल्कि हर एक अंगों की किसी न किसी हालत से वह अस्सी वर्ष का बुड्ढा जान पड़ता था। परन्तु कमजोरी, पस्तहिम्मती, बुजदिली और आलस्य इत्यादि के घावों से उसका शरीर बचा हुआ था।





चंद्रकांता संतति : खण्ड-5

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मायारानी ने अपना तिलिस्मी तमंचा, जिससे बेहोशी के बारूद की गोली चलाई जाती थी लीला को देकर कह दिया था कि मैं शेरअलीखां की मदद से उन्हीं के भरोसे पर रोहतासगढ़ के अन्दर जाती हूं, मगर ऐयारों के हाथ मेरा गिरफ्तार हो जाना कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि वीरेन्द्रसिंह के ऐयार बड़े ही चालक हैं। यद्यपि उनसे बचे रहने की पूरी-पूरी तर्कीब की गई है मगर फिर भी मैं बेफिक्र नहीं रह सकती, अस्तु यह तिलिस्मी तमंचा तू अपने पास रख और इस पहाड़ के नीचे ही रहकर हम लोगों के बारे में टोह लेती रह, अगर हम लोग अपना काम करके राजी-खुशी के साथ लौट आये तब तो कोई बात नहीं, ईश्वर न करे कहीं मैं गिरफ्तार हो गई तो तू मुझे छुड़ाने का बन्दोबस्त कीजियो और इस तमंचे से काम निकालियो। इसमें चलाने वाली गोलियां और वह ताम्रपत्र भी मैं तुझे दिये जाती हूं जिसमें गोली बनाने की तर्कीब लिखी हुई है।

  


चंद्रकांता संतति : खण्ड-6


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भूत - मैं अपने को कैदियों की तरह और अपने सामने अपनी ही स्त्री को सरदारी के ढंग पर बैठे हुए देखकर एक दफे घबड़ा गया और सोचने लगा कि यह क्या मामला है मेरी स्त्री मुझे अपने सामने ऐसी अवस्था में देखे और सिवाय मुस्कराने के कुछ न बोले!! अगर वह चाहती तो मुझे अपने पास गद्दी पर बैठा लेती क्योंकि इस कमरे में जितने दिखाई दे रहे हैं उन सभों की वह सरदार मालूम पड़ती है, इत्यादि बातों को सोचते-सोचते मुझे क्रोध चढ़ आया और मैंने लाल आंखों से उसकी तरफ देखकर कहा, ''क्या तू मेरी स्त्री वही रामदेई है जिसके लिए मैंने तरह-तरह के कष्ट उठाये और जो इस समय मुझे कैदियों की अवस्था में अपने सामने देख रही है ?'

  
 
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