‘एक देश बारह दुनिया’ एक रिपोर्ताज है । भारत एक विशाल देश है, यहां की
बहुत बड़ी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है । जहां मनुष्य जीवन स्थिर है,
सदियों से एक ही ढर्रे पर चलती जा रही है । जिस दुनिया में न
आधुनिकता है और न ही अधुनिक सुख-सुविधाऐं । अभाव, अशिक्षा,
गरीबी से लड़ते हुए लोग के जीवन को बचाए रखने की जद्दोजहद की खोज है
यह पुस्तक ।
शिरीष
खरे ग्रामीण भारत के नस-नस से वाकिफ हैं, उन्होंने देश के विभिन्न दूरस्थ भागों में वर्षो बिताया है और वहाँ की समस्यायों पर रिपोर्टिंग की है । उन्हीं के शब्दों में " इस मनोदशा को सोचता हूँ तो भारत में करीब साथ लाख गांव है । मेरे हिस्से अधिक नहीं तो देशभर के हजार गांव तो आए ही हैं, जहां से
मैं गुजरा हूँ, रुका हूँ और जिनके बारे में
मैंने कुछ-न-कुछ लिखा भी हूँ ।" भारतीय गांवों पर उत्कृष्ट रिपोर्टिंग के लिए वर्ष 2013 में भारतीय प्रेष परिषद और वर्ष 2009, 2013 और 2020 में संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष द्वारा लैंगिक संवेदनशीलता पर न्यूज स्टोरीज के लिए ‘लाडली मीडिया अवार्ड’ सहित सात राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।
एक देश बारह दुनिया पुस्तक में देश के ऐसे हिस्से को दर्शाया गया है, जहां मुख्यधारा के पत्रकारों की भी नजर नहीं जाती है । यह ओझल दुनिया की कहानी है जो आंखों के सामने होते हुए भी दिखाई नहीं देती है । ये कहानियां वर्षों की मेहनत के उपरांत लिखी गयी है । यह वे कहानियां नहीं हैं जो ए.सी. रूम में बैठकर कल्पनाशक्ति से लिखी जाती है ।
मेलघाट महाराष्ट्र
की वह दुनिया जहां भूख की निर्दयता सबको समान रूप से ग्रास बनाती है । कुपोषण का शिकार
मां और बच्चे दोनों होते हैं, परंतु सांसें गिनते हुए जब
बच्चा दम तोड़ देता है, तो मां के जीने का सपना भी टूटने लगता
है । वहां सभी असहाय होतें हैं और केवल बची रहती हैं उनकी चित्कार ।
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देह व्यापार में संलग्न मजबूर महिलाओं के लिए जिवकोपार्जन का कार्य जितना ही घृणित है उसका प्रतिफल भी उतना ही अल्प है, तंग कोठरियां में पलते जीवन के सपने को साकार करने की इच्छा ही उसे उस कार्य से जोड़े रखती है । वहां से निकलना उनके लिए बहुत ही कठिन है, असुरक्षा की भावना उसे डराए रखती है, अपने बच्चे के पुनर्वास के लिए उन्हें अपना पहचान भी छुपाना जरूरी जान पड़ता है ।
मस्सा, महाराष्ट्रा की कहानी कुछ ऐसी है कि जहां चीनी की उत्पदकता में महाराष्ट्रा देश में अव्वल है, वहीं इस कार्य में लगे मजदूरों की दशा अत्यंत दयनीय है, शोषण के ऐसे जाल में वे उलझें हैं कि पता ही नहीं चलता कि जाल कहां से शुरू होता है और कहां खत्म । पेट की आग बुझाते-बुझाते ही सब समाप्त हो जाता है, शिक्षा और अन्य मत्वपूर्ण चिजों की अहमियत समझने का न समय होता है और न जरूरत महसूस होती है । वे गांव छोड़कर गन्ने के खेतों में ही तत्कालिक झोपड़ी बना लेते हैं, पुरूष गन्ने की कटाई करते हैं तथा महिलाऐं कटे हुए गन्ने को उठाकर ट्रैक्टर पर लादते हैं । बच्चे को कोई देखने वाला नहीं हैं । वे माता-पिता के साथ होते हुए भी बिलखते रहते हैं, उनकी आंखों के आंसुओं को पोंछने की न फूर्सत होती है और न संसाधन ।
“ जिस इलाके से तीन मुख्यमंत्री, दो उप-मुख्यमंत्री, दो केंद्रीय गृह मंत्री और एक लोकसभा का सभापति सत्ता के गलियारे तक पहुंचे, उस इलाके की सम्पन्नता की कल्पना की जा सकती है, लेकिन मराठवाड़ा की सच्चाई यह है कि गन्ना मजदूरों का इस्तेमाल गुलामों की तरह किया जा रहा है । चीनी मिलों को मीठा देनेवाले गन्ना मजदूर एक-एक निवाले को मोहताज हैं । इसी के समानांतर इसी मराठवाड़ा में कई और कहानियां गरीबी, सूखा, किसान, आत्महत्या, भूख, पलायन और जातीय संघर्षों से भरी पड़ी हैं ।”
वे तुम्हारे नदी को मैदान बना जाऐंगे : नर्मदा नदी को मृतप्राय बनाने की कहानी है यह। एक ओर जहां विकास है, वहीं दूसरी ओर विकास का दुष्परिणाम झेलता मानव समूह । अमरकंटक नर्मदा का उदगम स्थल है, लेकिन वहां की आवोहवा ही खराब होती जा रही है । अमरकंटक से ही नर्मदा प्रदूषित होती जा रही है । दुर्लभ जड़ी-बूटियों और बाक्साइट की खदानों में अधिकतम उपभोग के कारण अमरकंटक की यह दुर्दशा हो गयी है । जैसे-जैसे नदी आगे की ओर बढती है, कहानी अत्याधिक मर्माहत करने लगती है । नदी के किनारे बसे गांवों को बांध के लिए विस्थापित करना अत्यंतत पीड़ा दायक है । बरगी नर्मदा पर बना पहला बाँध हैअध्ययन बताता है कि इस बांध में गाद जमाव की दर जलग्रहण क्षेत्र के प्रति वर्ग किलोमीटर पर सालाना दो सौ तीस घन मीटर है। बरगी जलाशय की बनावट कुछ ऐसी है कि गाद तेजी से इसकी गहराई में जाकर बैठ गई है । इससे जलस्तर तेजी से उथला हुआ है।
सुबह होने में देर है : बायतु
राजस्थान की जन-जातियों पर तथाकथित उच्च जाति के लोगों द्वारा की जानी वाली मनमानी
पूर्ण अत्याचार की कहानी है । लड़कियां जहाँ बलात्कार और गरीब जबरदस्ती का शिकार
बनते हैं, वहीं उनके पक्ष में एक भी आदमी खड़ा नहीं होता है । पुलिस
प्रशासन तो बड़ों का ही पक्ष लेता दिखता है । इन कमजोरों का मददगार कोई नहीं है ।
इन उच्च जाति के लोगों से लड़ने का मतलब है, अपने
ही पैर में कुल्हाड़ी मारना । ऐसे लोगों से सभी नाता तोड़ लेते हैं, अकेले दम पर लड़ना केवल अपने अंदर के प्रतिशोध की ज्वाला को
भड़काए रखने की वजह से संभव है, यह बस इक्का-दुक्का लोगों के
लिए ही संभव है ।
‘एक देश बारह दुनिया’ ऐसे ही दु:ख दर्द से जूझती जिंदीगी की कहानी है, जहाँ जीवन है, जीवन बचाये रखने के लिए संघर्ष है, आधुनिक सुख-सुविधा का अभाव है, फिर भी लोग एक रोशनी की उम्मीद में सांसें ले रहे हैं, कभी न कभी सूरज तो अवश्य निकलेगा ।
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