Saturday 13 November 2021

 पंच-बिरादरी तथा अन्य कहानियाँ 

लखनलाल पाल द्वारा रचित कहानी संग्रह 'पंच बिरादरी और अन्य कहानियाँ' पढते हुए आप जिस ग्रामीण परिवेश से परिचित होते हैं वह केवल बुंदेलखंड के ग्राम्य जीवन तक ही सीमित नहीं है, भले ही ये कहानियाँ बोली की जिस पटरी पर रेंगती हैं वह बुंदेली है, उनमें वर्णित बोली-वानी, खेती-किसानी, आपसी दंद-फंद, सामाजिक तानाबाना इत्यादि की पृष्ठभूमि बुंदेलखंड की है, जिस आधार पर इन कहानियों को आंचलिक तो कही जा सकती है । वैसे तो 'आंचलिक' शब्द रेणु की कहानियों के साथ जुड़कर पहले ही महत्ता और गौरव प्राप्त कर चुका है तथा देश और काल की सीमा से परे जा चुका है । उस आंचलिकता के निकट से गुजरना भी कल्पना सरीखे है । पुस्तक की शुरुआत में ही कही गयी है 'ये कहानियाँ मूल रूप से बुंदेली बोली में लिखी गई थीं, जिन्हें खड़ी बोली में रुपांतरित की गयी है।' 

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आजकल जहाँ अधिकांश कहानीकार शहरी जीवन जी रहे हैं, वे भले ही ग्राम्य जीवन की कहानियाँ लिख रहे हों, परंतु उनमें उतनी शुद्धता नहीं है, खासकर बोलचाल और सामाजिक वातावरण की प्रस्तुति में, वहीं लखनलाल पाल उरई जैसे छोटे शहर में रहते हुए बुंदेली बोली में दो चार करते हुए वातावरण और बोलचाल की भाषा को हूबहू रख रहे हैं बिना किसी मिलावट के । बिरादरीगत तानाबाना, स्वार्थपूर्ति की आड़ में तार-तार होते पारिवारिक रिश्ते, छोटी-छोटी बातों के लिए इर्ष्या-द्वेष, दांव-पेंच, आपसी कलह, महिलाओं के प्रति वही रूढिवादी सोच, बुआ-भतीजे का नेह इत्यादि सबकुछ है इन कहानियों में ठीक उसी रूप में जिस तरह ग्राम्य जीवन में होते हैं। इनमें शहरी जीवन का छाप तिल मात्र भी नहीं है ।


गाँव यहाँ अपनी उसी विशेषता के साथ दिखता है जैसा वह होता है । परंपराओं का वर्णन भी उसी ठेठ अंदाज में किया गया है, जो हमें बरबस अपनी जड़ों से जोड़ता है । कहानी 'अमावस्या पूर्णिमा ' का एक अनुच्छेद देखिए जो कि एक बानगी भर है : 

 

" दीपावली का त्योहार मनाने के लिए वह दिल्ली से लौट आया था । दीपावली तो सब जगह मनाई जाती है । वह त्योहार वहाँ भी मना सकता था पर गाँव की दिवारी के मनाने का खास कारण उसका मौन चराना था । बारह वर्ष पूरे हो गए थे, आखिरी तेरहवाँ वर्ष रह गया था । इन बारह सालों के बीच में क्या-क्या नहीं घटा और क्या-क्या नहीं बढा, यह सब उसके जेहन में आज भी उतर रहा था । आखिरी साल मौन मथुरा-वृन्दावन में चराई जाएगी । बारह वर्ष के इकट्ठे मोर पंख जो बड़े जतन से एक-एक पंख बीने थे, उनका अब मूठा बन गया था । बड़े भोरइयां वह खेतों से, परती से मोरपंख ढ़ूढ़-ढ़ूंढ़कर लाता था । इस साल वे सब जमुना में बहा दिए जाएंगे । इन बारह सालों में इस मूठा से उसे मोह हो गया था । जमुना जी में बहाने की याद में उसका मन बुझ-बुझ जाता है। पर क्या किया जाए, यही परम्परा है । सब कोई निभाता है, वह भी निभा लेगा । " 

 

इस संग्रह में कुल नौ कहानियाँ और एक पत्र है, जेठ का छोटे भाई की विधवा पत्नी के नाम  ' माटी कहे कुम्हार से...'  । यह भले ही एक साधारण-सा पत्र दिखता है, परंतु लेखक ने इसके माध्यम से समस्याओं के भंवर से निकलकर आकार लेती, प्रस्फुटित होती जिंदगी के पनपने की संजीदगी भरी कहानी रची है, जिसे पढकर पाठक सोचने के लिए विवश हो उठता है तथा देर तक स्मृतियों में इसकी छाप छाई रहती है । 


कहानियाँ एक से बढ़कर एक है, जिसकी मार्मिकता आपके दिल को छू लेती है । इनकी पठनीयता भी गजब की है, जिन्हें पढना शुरू किया तो बिना समाप्त किए मन नहीं मानता है । बुंदेली शब्दों को इस तरह पिरोया गया है कि पढने और सुनने में काफी रोचक बन पड़ा है। ये कहानियाँ जमीनी हकीकत से टकराती हुई आधुनिकता से दूर खेत-खलिहान, बाग-बगीचे, मवेशियों से जद्दोजहद करती हुई टोले-पड़ोसे के लोगों के छोटे-छोटे सपनों और उसके साकार होने की कश्मकश के बीच रेंगती जिंदगी को दर्शाती है ।

 

इन कहानियों में सामाजिक व प्राकृतिक वातावरण का वर्णन बड़ी सहजता के साथ की गई है, जिसकी कलात्मकता स्वत: ही अकर्षित करती है, पढते हुए ऐसा महसूस होता है कि आप भी कोई पात्र हों और उन गाँवों में पहुँच गए हों । कहानी 'दोआब' एक प्रेम कथा है। बुंदेलखंड में बुआ-भतीजे का रिश्ता मजाक का होता है, जहाँ द्विअर्थी   हँसी-मजाक को बूरा नहीं मानते हैं । चन्दना स्वयं से कम उम्र रिश्ते का भतीजा किसन से यौवन की शुरूआत में ही प्रेम कर बैठती है, परंतु इसकी स्वीकार्यता बहुत लम्बे समय बाद अधेर उम्र में पहुँचने पर किसन द्वारा होती है । किसन जहाँ शर्मीला और कम बोलने वाला है, वहीं चन्दना वाकपटु है और बात-बात पर मजाक करती है । कहानी में बचपन की चंचलता, हँसी-मजाक की मिठास है जो शुरू से अंत तक बनी रहती है । कहानी बीच-बीच में फ्लैश बैक में चली जाती है । 

" मैं उसे चिढ़ाती--" क्यों रे ! तू मुझसे ब्याह करेगा ?" वह चिढकर अपनी माँ को बता देता । उसकी माँ कहती--" बिन्नू मोरे लरका खें हुल्ल पै नईं धरे करौ ।" सचमुच कितना आनंद था उस समय - " मैं तेरे पैर दबाऊँगी, तेरा सब काम कर दिया करूँगी । तुझे बैठे-बैठे खिलाऊंगी, साथ में तेरे बच्चे भी पैदा करूँगी ।" मेरी माँ मुझे डांटती और किसन खोला को सिखाती कि तू भी चन्दना को ऐसा कह दे, वैसा कह दे किंतु उसकी हिम्मत न पड़ती ।"      

 

संग्रह की प्रथम कहानी है 'दस बीघा', जिसके 'रगबर बब्बा'  जैसा पात्र देश के लगभग हर गाँव में मिल जाऐंगे, जिनका क्रोध तो दुर्वासा जैसा है, परंतु पावर फ्यूज बल्ब की तरह है । उसके अंदर की छटपटाहट को बड़े ही मार्मिकता के साथ लिखा गया है । जमीन अरजने की क्षमता तो रही नहीं, किंतु बंटवारा रोककर झूठी  शान-शौकत के दंभ को अगले पीढी तक कायम रखने की लालसा उसे हँसी का पात्र तथा बहु-बेटियों के समक्ष निर्लज्ज बना देती है । गाँव में उसका पोजीशन नम्बर एक पर है जमीन के मामले में, वह चाहता है आनेवाली पीढी यानी कि उसका पौत्र भी उसी नम्बर पर रहे । उसकी जमीन का कभी बंटवारा न हो, इसलिए वह दूसरा पौत्र नहीं चाहता है । बहु से गर्भधारण संबंधित प्रश्न पूछने की उसकी विवशता और संतानोत्पत्ति तक की उसकी बेचैनी पुरूष प्रधान समाज की सामंतवादी सोच को बरकरार रखने की साजिश की ही एक उपान है । 


कहानी 'चुनाव' स्त्री संघर्ष की अनोखी कहानी है, यहाँ वह स्त्री नहीं है जो चूल्हा-चौका या घर की दीवारों तक ही सीमित रह कर घुटती रहती है, तथा ऊहापोह की जिंदगी में उलझी रहती है, बल्कि वह घर से बाहर निकलकर पुरूषों के कार्यक्षेत्र में घुसकर उन्हें टक्कर देती है । यह पुरुषों से बराबरी करने की कहानी है । लेखक ने जिस स्त्री पात्र का चुनाव किया है, उसका नाम भी एक पुरुष नाम है तथा भारतीय समाज में जहाँ स्त्री को दलित की श्रेणी में रखा जाता है, वहीं यह पात्र दलित स्त्री है । इस दलित स्त्री पात्र का उत्साह, जोश-जज्बा और राजनीतिक चाल अन्य प्रतिद्वंद्वी से किसी मामले में कम नहीं है । चुनाव जीतने के लिए वह विरोधियों की हर चाल का सटीक जवाब देती है । इस तरह वह स्त्री पात्र पुरुषों से कहीं आगे निकलता हुआ दिखता है।  

 

इस संग्रह की एक अन्य प्रमुख कहानी जिसके नाम पर इसका शीर्षक है यानी 'पंच-बिरादरी' । यह कहानी पुराने जर्जर सामाजिक नियमों पर चोट है, कमजोर हो रही व्यवस्था के लुप्त होने की आहट है, नये बदलाव का स्वागत है। कहानी की नायिका उजियारी कहती है, " पंचों का फैसला मैं नहीं मानती ।" ...और यहीं से वह पुरानी अर्थहीन जातिगत पंचायती व्यवस्था के खत्म होने का बिगुल फूंकती है । लेखक ने कहानी के शुरुआत में ही लिखा  है---

'गाँव में पंचायतें वैसे ही खत्म हो रही हैं, जैसे काबर माटी का कठिया गेहूँ। गेहूँ की किस्मों ने कठिया को अपने ही घर में पराया बना दिया । रो रहा है बेचारा खेतों के कोने में । क्या करे, तेजी से बदले जमाने में कठिया गेहूँ जमाने के हिसाब से अपने आपको बदल न सका ।" 

कहानी के अंत तक उजियारी अपनी बात पर अडिग रहती है और पंचों का एक भी फैसला स्वीकार नहीं करती है। पंच एक-दूसरे का मुँह ताकते रह जाते हैं, उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाते ।  


कहानी 'ये तो रे' समाज की अभिशप्त जातीय व्यवस्था पर करारा चोट है । जाति व्यवस्था के निचले पायदान पर जो जातियां हैं केवल वही दुर्दशा और प्रताड़ना के शिकार नहीं हैं, बल्कि मध्य क्रम की जातियां भी कुंठा, मानसिक प्रताड़ना व दुर्दशा को झेलती हुई विवश हैं । इस कहानी का पात्र रामसरूप भले ही बुंदेलखंड का है, परंतु उसकी जैसी विवशता समस्त हिंदी प्रदेश के गाँवों में देखी जा सकती है । 


“ कई बार लोगों ने उसे टोका कि मुखिया क्यों हंस रहा है ? मुखिया अपनी पूर्व स्थिति में आकर कोई भी बात बना देता था । ये बातें जो सेना की तरह उसके साथ लगी रहती थीं, वही सेना आज पराजित होकर उसके जेहन के किसी कोने में पड़ी कराह रही थी । महराज की उपाधि धारण करते ही उसकी सेना गाजर-मूली की तरह कट गई । एक क्षण ब्राह्मण बनने का स्वांग रचा, तो यह हालत हो गई, यदि सारे जीवन के लिए ब्राह्मण की उपाधि धारण कर ली होती, तब तो उसे नोच-नोचकर कुत्ते ही खा जाते । 'ब्राह्मण' शब्द इतना यातनापूर्ण है, उसे अबतक पता नहीं था । उसे ब्राह्मण बनने का शौक भी नहीं था। किसी ने पदवी दे दी, तो वह मना न कर सका । क्यों मना करता, जब यही लोग उसे जाति सूचक शब्दों से जलील करने की कोशिश करते हैं, तो वह कहाँ मना कर पाता है । वे चोट करते-- "गड़ेरिया को कभी शऊर आया है, जो अब आएगा ।" वह तिलमिला जाता, अंदर से मर-मर जाता । वह अपने को कोसता, अपने जन्म पर दु:ख प्रकट करता कि इस जाति में क्योंकर जन्म लिया ? 

      रामस्वरूप के तर्क लोगों पर तलवार चलाते थे पर वे लोग जातिसूचक अचूक हथियार से उसके वार को रोककर उसे धराशायी कर देते । रामस्वरूप तनिक भी न टिक पाता । चाबी भरे खिलौने की गति को जाति की मजबूत दीवार पूरी तरह से रोक देती । भरी चाबी उसके दिमाग के पहियों को खर-खर करके मथ देती । झेंप के मारे उसका मुँह लाल पड़ जाता । " 


'सूखे वाला चैक' स्वार्थ पूर्ति के लिए करीबी रिश्ते को हलाल करने की कहानी है। मौसा ने चिकनी-चुपड़ी बातों के द्वारा सभी को सम्मोहित कर रखा है, परंतु अंदर ही अंदर भीतरघात कर उसने अपनी साली के हिस्से की जमीन अपने नाम करा लिया है, जब उसकी वास्तविकता खुलती है तो रामबरन के पैरों तले की जमीन खिसक जाती है । देखिए कहानी का एक छोटा अंश जिसमें विश्वासघात होने के बाद भी मन नहीं मानता है । 



" ऐसा नहीं हो सकता है । मौसा ऐसा कैसे कर सकते हैं ? लेखपाल झूठ बोल रहा है । मौसा हमें कितना चाहते हैं ? फिर भला मौसी-मौसा से गहरा कोई रिश्ता होता है ? मौसा यदि धोखा करेंगे तो क्या मौसी नहीं रोकेगी ? रोकेगी, क्यों नहीं रोकेगी ? मौसा-मौसी समाज में नाम धरने से नहीं डरेंगे क्या ? समाज क्या कहेगा ? सिर ऊपर न उठा सकेंगे । ऐसा हो नहीं सकता । भैया बिरादरी में सब जगह आना जाना होता है आदमी का । कहाँ कहाँ तक, किस-किससे मुँह चुराएंगे । मौसा बिरादरी में उठने-बैठने वाले हैं । बिरादरी के विवाह अवसरों पर या त्रयोदशी के मौकों पर मौसा जी ख्याल और भजनों के लिए बुलाए जाते हैं। भक्त प्रह्लाद, द्रोपदी चीर हरण और न जाने कितने अख्यानकों को ख्याल में पिरोकर सुनाते हैं। लोग वाह-वाह कह उठते हैं.............. फिर मौसी एक खून, एक कोख से उत्पन्न, भला इतनी ज्यादती कैसे कर सकती है ?."  


रामबरन इस भीतरघात के सदमें से बाहर नहीं निकल पाता है और आत्महत्या कर लेता है । यह कहानी फरेब की कहानी है, भीतरघात की कहानी है, अपनों के द्वारा अपनों का गला काटने की कहानी है, हिंदी प्रदेश के लगभग सभी गाँवों में चाचा, मामा, मौसा, भाई या किसी अन्य निकट संबंधियों द्वारा इस तरह के कपट करने का किस्सा  लोगों की जुबान पर चढ़ा हुआ है । अत: ये कहानियाँ किसी भी स्थिति में केवल एक क्षेत्र या अंचल मात्र की नहीं हैं । 

                                                                   --- मनोज मंजुल ( Manoj Manzul), कानपुर

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