Tuesday 9 March 2021

 सत्य के साथ मेरे प्रयोग ” मोहनदास करम चन्द गाँधी की अत्मकथा है । महात्मा गाँधी एक महान पुरूष थे, जिनके बारे जितना कहा जाय, उतना ही कम है । इस पुस्तक में उन्होंने अपने बारे में जो भी बात बतायी है वह न तो महिमामंडन है और न ही अपनी भूल छुपाने का प्रयास । Satya Ke Sath Mere Prayog.

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इस पुस्तक को पढ़ने से गांधी को समझने में आसानी होती है । गांधी कैसे थे ? उनका विचार क्या था ? इन सभी प्रश्नों का जबाव बड़े ही अच्छे तरीके से मिल सकता है । गाँधी एक पवित्र और सच्चे इंसान थे। उनका पूरा जीवन ही अंहिसा और प्रेम का दर्पण रहा है, वो किसी का अहित कर ही नहीं सकते थे।

ज्यादातर आत्मकथाओं में लोग खुद का महिमामंडन ज्यादा करते है, एवं अपने जीवन में की गयी गलतियों को छुपाने या खुद को सही साबित करने का प्रयास करते है। पर गाँधीजी ने एक मासूम बच्चे की तरह अपने पुरे जीवन को एकदम निर्दोषता के साथ पूर्ण सत्य के साथ सबके सामने रखा है। यह पुस्तक सभी को अवश्य पढ़नी चाहिए।

मैं जो प्रकरण लिखने वाला हूँ; इनमें यदि पाठकों को अभिमान का भास हो; तो उन्हें अवश्य ही समझ लेना चाहिए कि मेरे शोध में खामी है और मेरी झाँकियाँ मृगजल के समान हैं। मेरे समान अनेकों का क्षय चाहे हो; पर सत्य की जय हो। अल्पात्मा को मापने के लिए हम सत्य का गज कभी छोटा न करें।

 मैं चाहता हूँ कि मेरे लेखों को कोई प्रमाणभूत न समझे। यही मेरी विनती है। मैं तो सिर्फ यह चाहता हूँ कि उनमें बताए गए प्रयोगों को दृष्‍टांत रूप मानकर सब अपने-अपने प्रयोग यथाशक्‍ति और यथामति करें। मुझे विश्‍वास है कि इस संकुचित क्षेत्र में आत्मकथा के मेरे लेखों से बहुत कुछ मिल सकेगा; क्योंकि कहने योग्य एक भी बात मैं छिपाऊँगा नहीं। मुझे आशा है कि मैं अपने दोषों का खयाल पाठकों को पूरी तरह दे सकूँगा। मुझे सत्य के शास्‍‍त्रीय प्रयोगों का वर्णन करना है। मैं कितना भला हूँ; इसका वर्णन करने की मेरी तनिक भी इच्छा नहीं है। जिस गज से स्वयं मैं अपने को मापना चाहता हूँ और जिसका उपयोग हम सबको अपने-अपने विषय में करना चाहिए। "

मोहनदास करमचंद गांधी

राष्‍ट्रपिता महात्मा गांधी की आत्मकथा सत्य के साथ मेरे प्रयोग हम सबको अपने आपको आँकने; मापने और अपने विकारों को दूर कर सत्य पर डटे रहने की प्रेरणा देती है।

इस पुस्तक का एक प्रमुख अंश :

अपने एक रिश्तेदार के साथ मुझे बीड़ी पीने का शौक लगा । मेरे काकाजी को बीड़ी पीने की आदत थी । उन्हें और दूसरों को धुआँ उड़ाते देखकर हमें भी बीड़ी फूँकने की इच्छा हुई । गाँठ में पैसे तो थे नहीं, इसलिए काकाजी के पीने के बाद बीड़ी का जो ठूँठ फेंक देते, हमने उन्हें चुराना शुरू किया।

बीड़ी का ये ठूँठ हर समय मिल नहीं सकते थे और उनमें से बहुत धुआँ भी नहीं निकलता था ।। इसलिए नौकर की जेब में पड़े दो चार पैसों से हमने एकाध पैसा चुराने की आदत डाली और हम बीड़ी खरीदने लगे । पर सवाल यह पैदा हुआ कि उसे संभाल कर रखें कहाँ ? हम जानते थे कि बड़ों को देखते तो बीड़ी पी ही नहीं सकते। जैसे तैसे पैसा चुराकर कुछ हफ्ते काम चलाया । इस बीच सुना कि एक प्रकार का पौधा होता है, जिसके डंठल बीड़ी की तरह जलते हैं और फूँके जा सकते हैं । हमने उन्हें प्राप्त किया और फूँकने लगे । पर हमें संतोष नहीं हुआ । अपनी पराधीनता हमें अखरने लगी । हमें दुख इस बात का था कि बड़ों की आज्ञा के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते थे । हम ऊब गये और हमने आत्महत्या करने का निश्चय कर लिया ।   

हमने सुना कि धतूरे के बीज खाने से मृत्यु होती है । हम जंगल में जाकर बीज ले आए । शाम का समय तय किया । केदारानाथजी के मंदिर की दीपमाला में घी चढाया, दर्शन किए और एकांत खोज लिया । पर जहर खाने की हिम्मत न हुई । दोनों मौत से डरे और यह निश्चय किया कि रामजी के मंदिर में जाकर दर्शन करके शांत हो जाएँ और आत्म हत्या की बात भूल जाएँ ।

मेरी समझ में आया कि आत्महत्या का विचार करना सरल है, आत्महत्या करना सरल नहीं है ।

आत्महत्या के इस विचार का परिणाम यह हुआ कि हम दोनों जूठी बीड़ी चुराकर पीने की और नौकर के पैसे चुराकर बीड़ी खरीदने और फूँकने की आदत भूल गए ।   

दूसरी चोरी के समय मेरी उमर पंद्रह साल की रही होगी । यह चोरी मेरे मांसाहारी भाई के सोने के कड़े के टुकड़े की थी । उनपर मामूली सा, लगभग पच्चीस रुपए का, कर्ज हो गया था । उसकी अदायगी के बारे में हम दोनों भाई सोच रहे थे । मेरे भाई के हाथ में सोने का ठोस कड़ा था । उसमें से एक तोला सोना काट लेना मुश्किल न था । कड़ा कटा और कर्ज अदा हुआ । पर मेरे लिए यह बात असह्य हो गयी । मैंने निश्चय किया कि आगे कभी चोरी करूँगा ही नहीं । मुझे लगा कि पिताजी के समुक्ख अपना दोष स्वीकार कर लेना चाहिए, पर जीभ न खुली । आखिर मैंने तय किया कि चिट्ठी लिखकर दोष स्वीकार किया जाय और क्षमा माँग ली जाए, मैंने चिट्ठी लिखकर हाथोहाथ दी । चिठ्ठी में सारा दोष स्वीकार किया और सजा चाही ।

उन्होंने चिठ्ठी पढी, आँखों से मोती की बूँदें टपकी । चिठ्ठी भींग गई । उन्होंने क्षण भर के लिए आँखें मूँदी और फिर चिठठी फाड़ डाली और स्वयं पढने के लिए उठ बैठे थे, सो वापस लेट गये ।

मैं भी रोया, पिताजी का दुख समझ सका । अगर मैं चित्रकार होता तो वह चित्र आज संपूर्णता से खींच सकता । आज भी वह मेरी आँखों के सामने इतना स्पष्ट है ।

मोती की बूदों के प्रेमबाण ने मुझे बेध डाला । मैं शुद्ध बना । इस प्रेम को तो अनुभवी ही जान सकता है ।   

इस तरह की कई घटनाऐं वर्णित है, जिससे कि महात्मा गाँधी को सही मायने में समझा जा सकता है ।    

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