ओम प्रकाश वाल्मीकि और दलित साहित्य: ओम प्रकाश वाल्मीकि ने कहा था कि दलित साहित्य दलितों द्वारा रचित होना चाहिए अर्थात दलित ही दलित की पीड़ा को अच्छी तरह समझ सकता है, वही दलित की पीड़ा की प्रमाणिक अभिव्यक्ति कर सकता है ।
इस कथन की पुष्टि के तौर पर उन्होंने अपनी आत्मकथा जूठन
में वंचित वर्ग की समस्याओं की ओर ध्यान आकृष्ट किया था । वास्तव में इस आत्मकथा में उनकी ईमानदार
प्रकटीकरण ने लोगों के समक्ष दलितों की समस्याओं को रखा, जो
सामान्य समस्या होते हुए भी अन्य वर्गों से अलग थी । सवर्णों द्वारा उनके प्रति
भेद-भाव से उपजी पीड़ा को कोई अन्य कहाँ महसूस कर सकता है? भोगा
हुआ यथार्थ तो एक दलित के द्वारा ही व्यक्त किया जा सकता है ।
जूठन
जूठन’ दलित जीवन की मर्मान्तक पीड़ा का दस्तावेज है।
जीवन की सुख-सुविधा और तमाम नागरिक सहूलियतों से वंचित दलित जीवन की त्रासदी उनके
व्यक्तिगत वजूद से लेकर घर-परिवार, बस्ती और पूरी सामाजिक व्यवस्था तक फैली हुई है।
दलित-जीवन की पीड़ाएँ असहनीय और अनुभव-दग्ध हैं। आज भी जिस शब्द को उच्च वर्ण के लोग गाली की तरह उपयोग करते हैं (डोम, चमार, मेहतर, भंगी या चूहड़ा) ऐसे वर्ण या जाति में ओमप्रकाश बाल्मीकि जी का जन्म हुआ था। इस वर्ण में पैदा होना ही उस समय भारत देश में सबसे बड़ी गलती मानी जाती थी जहां दलित परिवार के लोगों को आदमी नहीं समझा जाता था। इसी की अभिव्यक्ति ‘जूठन’ आत्मकथा के माध्यम से हुई है, एक दलित की आत्मव्यथा क्या होती है उसे बड़े ही मार्मिक तरीके से बताया है।
अपनी आत्मव्यथा को उजागर करने वाली इस ‘आत्मकथा’ के
बारे में खुद ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं- ‘‘दलित जीवन की पीड़ाएं असहनीय और अनुभव-दग्ध हैं।
ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान नहीं पा सके। एक ऐसी
समाज-व्यवस्था में हमने सांसें ली हैं, जो बेहद क्रूर और अमानवीय है। दलितों के प्रति ‘असंवेदनशील
भी...। अपनी व्यथा-कथा को शब्द-बद्ध करने का विचार काफी समय से मन में था। लेकिन
प्रयास करने के बाद भी सफलता नहीं मिल पा ही थी।...इन अनुभवों को लिखने में कई
प्रकार के खतरे थे। एक लंबी जद्दोजहद के बाद मैंने सिलसिलेवार लिखना शुरू किया।
तमाम कष्टों, यातनाओं, उपेक्षाओं, प्रताड़नाओं को एक बार फिर जीना पड़ा, उस
दौरान गहरी मानसिक यंत्रणाएं मैंने भोगीं। स्वयं को परत-दर-परत उघेड़ते हुए कई बार
लगा-कितना दुखदायी है यह सब! कुछ लोगों को यह अविश्वसनीय और अतिरंजनापूर्ण लगता
है।’’
जूठन का अनुवाद कई अन्य भाषाओं में हो चुका है ।
ओमप्रकाश वाल्मीकि के इस कथा संग्रह की सभी कहानियां
दलित के जीवन से जुड़ी हुई है । दलितों जो आम जीवन में जैसे रहते हैं, उनकी
कठिनाईयों का यथार्थ की कथा इसमें उकेड़ी गयी है । ये मार्मिक कहानियाँ हैं जो व्यवस्था
के प्रति आक्रोश व्यक्त करती है । दलितों के दुख-सुख, आंतरिक
घृणा, अनुभवजन्य
पीड़ाओं को बड़े ही सृजनात्मक रूप से इन कहानियों में दर्शाया गया है । वस्तुगत यथार्थ
की संगति में जिस रचनात्मक कौशल के साथ इन्हें ओमप्रकाश वाल्मीकि इस बिंदु तक लाए हैं
वह उनके कहानीकार की ताकत का साक्ष्य है । सामाजिक विवशता, व्यवस्था
के प्रति आक्रोश एवं घृणा का जो विस्फोट उनके अंदर है, वही
उनकी सृजनात्मक ऊर्जा का स्रोत है ।
सफाई देवता
यह सफाई कर्मी अर्थात भंगी के उपेक्षित जीवन संघर्ष की कहानी
है । ख्यातिलब्ध लेखक एवं समाज सुधारक ओम प्रकाश वाल्मीकि के द्वारा देश समाज के
सबसे अधिक उपेक्षित तबके की वास्त्विक स्थिति का सप्रमाण वर्णन करने का प्रयास किया
गया है ।
भंगी शब्द सुनकर लोगों की भौंहें तन जाती है, वे उन्हें
हमेशा घृणा की दृष्टि से देखते है । समाज की उपेक्षा और प्रताड़ना ने उनमें इस तरह हीनता
भर दी है कि उस वर्ग के पढे-लिखे लोग भी अपनी पहचान छिपाने की कोशिश करते हैं । दलितों
में यह तबका सबसे गरीब है। गरीबों को मदद करने वाले लोग भी इनकी मदद की जरूरत नहीं
समझी । पुनर्वास की राजनीति करनेवाले भी
इनके पुनर्वास के लिए कभी नहीं सोचा। उच्चवर्गीय, ब्राह्मणवादी
एवं सामंती विचार वाले लोग इन्हें कोई भी सामाजिक अधिकार देने को तैयार नहीं है ।
इस पुस्तक का उद्देश्य भंगी के जीवन संघर्ष, उसकी उपेक्षा, उत्पीड़न, शोषण और दमन का विश्लेषण करना है तथा उसके सामने खड़ी समस्यायों का विवेचन करना है । इसके लिए एतिहासिक विवरण के साथ साथ वर्तमान का मूल्यांकन करना है ।
लेखक का उद्देश्य लम्बे, भीषण
नारकीय दौर में वाल्मीकि समाज की उपलब्धियों, संघर्षों की खोज कर, ऐसी
मिशाल पेश करना है जो भविष्य के अंधकार से उसे बाहर निकालने की प्रेरणा दे सके ।
सलाम
कथासंग्रह सलाम के माध्यम से ओम प्रकाश वाल्मीकि ने दलितों के जीवन का
आईना प्रस्तुत करने की कोशिश की है । चौदह कहानियों के संकलन में कुछ कहानियां
बहुत ही उल्लेखनीय हैं, जिसमें सलाम, बिरम की बहू ,पच्चीस चौका डेढ़ सौ इस संग्रह की चर्चित कहानियाँ हैं।
सभी कहानियों में उपेक्षित और वंचित दलित जीवन के विविध पक्षों को प्रस्तुत किया
गया है।
उन्होंने दलित जीवन के पीड़ा ,संत्रास और छटपटाहट ,जीवन
की विवशता को रचनात्मक रूप प्रदान किया। उन्होंने शोषित जन समूह के
अस्मिता को उभारा और समाज की विसंगतियों पर प्रहार किया।
ओम प्रकाश वाल्मीकि ने अपनी रचनाओं के माध्यम से सामाजिक आंदोलनों को साहित्यिक अभिव्यक्ति देने का महत्वपूर्ण काम किया। सभी कहानियाँ सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक सन्दर्भों के बीच रची गयी हैं। एक बड़े वर्ग का असंवेदनशील चेहरा इन कहानियों में उभर कर सामने आता है। बरसों की उपेक्षा से उपजी व्यथा को वाल्मीकि जी ने स्वर दिया है। दलित साहित्य उस सामन्तवादी व्यवस्था के खिलाफ़ उठ खड़ा हुआ , जो पीढ़ियों से एक वर्ग के लोगों को अछूत समझता रहा। दलित साहित्य उन दमित लोगों की अस्मिता की पहचान है। दलित जीवन संघर्ष से उपजी मुक्ति की चेतना ने नयी रचनाधर्मिता को अभिव्यक्ति दी। मानव विरोधी वर्ण व्यवस्था के परिणामस्वरूप साहित्य में नये नायकों का जन्म हुआ। इस कहानी संग्रह की पहली ही कहानी 'सलाम'।
बस्स ! बहुत हो चुका
( कविता संग्रह )
जब भी देखता हूँ मैंझाड़ू या गन्दगी से भरी बाल्टी
कनस्तर
किसी हाथ में
मेरी रगों में
दहकने लगते हैं
यातनाओं के कई हज़ार वर्ष एक साथ
जो फैले हैं इस धरती पर
ठंडे रेत-कणों की तरह
वे तमाम वर्ष
वृत्ताकार होकर घूमते हैं
करते हैं छलनी लगातार
उँगलियों और हथेलियों को
नस-नस में समा जाता है ठंडा ताप
(30 जून 1950 - 17 नवम्बर 2013) हिंदी दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश वाल्मीकि का योगदान प्रमुख रहा है । उन्होंने अस्सी के दशक में लिखना शुरू किया, लेकिन उनकी पहचान 1997 में प्रकाशित उनकी आत्मकथा जूठन से हुई । जूठन अत्यधिक चर्चित रहा और इसका कई भाषा में अनुवाद भी हुआ ।
इस आत्मकथा ने पहली बार बौद्धिक जगत में दलितों की पीड़ा
को दर्शाकर हलचल मचा दी । इससे यह पता चलता है कि किस तरह वीभत्स उत्पीड़न के बीच
एक दलित रचनाकार की चेतना का निर्माण और विकास होता है। किस तरह लंबे समय से
भारतीय समाज-व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर खड़ी ‘चूहड़ा’ जाति का एक बालक
ओमप्रकाश सवर्णों से मिली चोटों-कचोटों के बीच परिस्थितियों से संघर्ष करता हुआ
दलित आंदोलन का क्रांतिकारी योद्धा ओमप्रकाश वाल्मीकि बनता है। दरअसल, यह दलित
चेतना के निर्माण का दहकता हुआ दस्तावेज है।
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