हिंद स्वराज : महात्मा गांधी । मेरी इस छोटी सी किताब की ओर विशाल जनसंख्या का ध्यान खिंच रहा है, यह सचमुच ही मेरा सौभाग्य है । यह मूल तो गुजराती में लिखी गयी है । इसका जीवन क्रम अजीब है । यह पहले पहल दक्षिण अफ्रिका में छपने वाले साप्ताहिक ‘इण्डियन ओपीनियन में प्रगट हुई थी । 1909 में लंदन से दक्षिण अफ्रिका लौटते हुए जहाज पर हिंदुस्तानियों के हिंसावादी पंथ को और उसी विचारधारा वाले दक्षिण अफ्रीका के एक वर्ग को दिए गए जवाब के रूप में यह लिखी गई थी । मैं लंदन में रहनेवाले हर एक नामी अराजकतावादी हिंदुस्तानी के संपर्क में आया था । उनकी शूर वीरता का असर मेरे मन पर पड़ा था, लेकिन मुझे लगा कि उनके जोश ने उल्टी राह पकड़ ली है । मुझे लगा कि हिंसा हिंदुस्तान के दुखों का इलाज नहीं है और उसकी संस्कृति को देखते हुए उसे आत्मरक्षा के लिए कोई अलग और ऊँचे प्रकार का शस्त्र काम में लाना चाहिए । दक्षिण अफ्रीका का सत्याग्रह उस समय शैशवावस्था में था, लेकिन उसका विकास इतना हो चुका था कि उसके बारे में कुछ हद तक आत्मविश्वास से लिखने की मैंने हिम्मत की थी । मेरी वही लेखमाला पाठकपाठक वर्ग को इतनी पसंद आई कि वह किताब के रूप में प्रकाशित हो गई । हिंदुस्तान में उसकी ओर कुछ लोगों का ध्यान गया । महाराष्ट्र सरकार ने उसके प्रचार की मनाही कर दी । उसका जवाब मैंने किताब का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करके दिया । मुझे लगा कि अपने अंग्रेज मित्रों को इस किताब के विचारों से वाकिफ कराना उनके प्रति मेरा फर्ज है ।
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मेरी राय से यह किताब ऐसी है कि यह बालक के हाथ में भी दी जा सकती है । यह द्वेष धर्म की जगह प्रेमधर्म सिखाती है; हिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती है; पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्म बल को खड़ा करती है। इसकी अनेक आवृतियां हो चुकी है और जिन्हें इसे पढने की परवाह है उनसे इसे पढने की मैं जरूर सिफारिश करूंगा । इसमें से मैं सिर्फ एक ही शब्द-और वह एक महिला मित्र की इच्छा को मानकर रद्द किया है, इसके सिवा और कोई फेरबदल मैंने इसमें नहीं किया है ।
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